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वि यत्ति॒रो ध॒रुण॒मच्यु॑तं॒ रजोऽति॑ष्ठिपो दि॒व आता॑सु ब॒र्हणा॑। स्व॑र्मीळ्हे॒ यन्मद॑ इन्द्र॒ हर्ष्याह॑न्वृ॒त्रं निर॒पामौ॑ब्जो अर्ण॒वम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vi yat tiro dharuṇam acyutaṁ rajo tiṣṭhipo diva ātāsu barhaṇā | svarmīḻhe yan mada indra harṣyāhan vṛtraṁ nir apām aubjo arṇavam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वि। यत्। ति॒रः। ध॒रुण॑म्। अच्यु॑तम्। रजः॑। अति॑स्थिपः। दि॒वः। आता॑सु। ब॒र्हणा॑। स्वः॑ऽमीळ्हे। यत्। मदे॑। इ॒न्द्र॒। हर्ष्या॑। अह॑न्। वृ॒त्रम्। निः। अ॒पाम्। औ॒ब्जः॒। अ॒र्ण॒वम् ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:56» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:21» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:10» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमैश्वर्य्ययुक्त (इन्द्र) सभेश ! जैसे (औब्जः) कोमल करनेवाले से सिद्ध हुआ (यत्) जो सूर्य (दिवः) प्रकाश वा आकर्षण से (आतासु) दिशाओं में (तिरः) तिरछा किया हुआ (बर्हणा) वृद्धियुक्त (अच्युतम्) कारणरूप वा प्रवाहरूप से अविनाशि (धरुणम्) आधारकर्त्ता (रजः) पृथिवी आदि सब लोकों को (व्यतिष्ठिपः) विशेष करके स्थापन करता और (मदे) आनन्दयुक्त (स्वर्मीढे) अन्तरिक्ष में वर्त्तमान (हर्ष्या) हर्ष उत्पन्न कराने योग्य कर्मों को करता हुआ (यत्) जिस (वृत्रम्) मेघ को (अहन्) नष्ट कर (आतासु) दिशाओं में (अपाम्) जलों के सकाश से (अर्णवम्) समुद्र को सिद्ध करता है, वैसे अपने राज्य और न्याय को धारण कर शत्रुओं को मार अपनी स्त्री को आनन्द दिया कर ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्यलोक अपने प्रकाश और आकर्षणादि गुणों से सब लोकों को अपनी-अपनी कक्षा में भ्रमण कराता, सब दिशाओं में अपना तेज वा रस को विस्तार और वर्षा को उत्पन्न करता हुआ प्रजा के पालन का हेतु होता है, वैसे स्त्री-पुरुषों को भी वर्त्तना चाहिये ॥ ५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! यथौब्जो सूर्य्यलोको दिव आतासु तिरो बर्हणाऽच्युतं धरुणं रजो व्यतिष्ठिपो व्यवस्थापयति मदे स्वर्मीढेऽन्तरिक्षे हर्ष्या हर्षकराणि कर्माणि कुर्वन् यद्यं वृत्रमहन्नपामर्वणं निर्वर्त्तयति यथा स्वराज्यन्यायौ धृत्वा शत्रून् हत्वा पत्न्या आनन्दं जनय ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वि) विशेषार्थे (यत्) यम् (तिरः) तिरस्करणे (धरुणम्) आधारकम् (अच्युतम्) कारणरूपेण प्रवाहरूपेण वाऽविनाशि (रजः) पृथिव्यादिलोकजातम् (अतिष्ठिपः) संस्थापयेः (दिवः) प्रकाशादाकर्षणाद्वा (आतासु) सर्वासु दिक्षु। आता इति दिङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.६) (बर्हणा) बृह्यते येन तत् (स्वर्मीढे) स्वः किरणान् जलानि वा मेहयति यस्मादन्तरिक्षात् तस्मिन् (यत्) तम् (मदे) माद्यन्ति यस्मिंस्तस्मिन् (इन्द्र) सूर्य इव परमैश्वर्य्यकारक (हर्ष्या) हर्षं जनितुं योग्यानि कर्माणि कुर्वन् (अहन्) हन्ति (वृत्रम्) मेघम् (निः) नितराम् (अपाम्) जलानां सकाशात् (औब्जः) य उब्जत्यार्जवी करोति तेन निर्वृत्तः सः (अर्णवम्) समुद्रम् ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यलोकः स्वप्रकाशाकर्षणादिगुणैः सर्वाल्ँलोकान् स्वस्वकक्षासु भ्रामयन् सर्वासु दिक्षु स्वतेजसा रसं हृत्वा वर्षां जनयन् प्रजापालनहेतुर्वर्त्तते तथा स्त्रीपुरुषाभ्यां वर्त्तितव्यम् ॥ ५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्यलोक आपल्या प्रकाश व आकर्षण इत्यादी गुणांनी सर्व गोलांना आपापल्या कक्षेत भ्रमण करवितो. सर्व दिशांमध्ये आपले तेज व रसाचा विस्तार करतो व वृष्टी उत्पन्न करतो तो प्रजेच्या पालनाचा हेतू असतो. तसे स्त्री पुरुषांनी वागावे. ॥ ५ ॥